रतनसुत्त (RATAN SUTTA) और उसका अर्थ !
एक बार जब वैशाली नगरी भयंकर रोगों, अमानवी उपद्रवों और दुर्भिक्ष-पीड़ाओं से संतप्त हो उठी, तो इन तीनों प्रकार के दुःखों का शमन करने के लिए महास्थविर आनंद ने त्रिरत्न के अनंत गुणों का स्मरण करते है (पहले बुद्ध उन्हे विधी समझाते है ओर भन्ते आनंद जी का पुरी विधी होणे के बाद सारे लिच्छवि बुद्ध के पास आकार बेठते है फ़िर बुद्ध उन्हे अर्थ समझाते हुवे देसना देते है )
यानीध भूतानि समागतानि,
भुम्मानि वा यानि व अन्तलिक्खे।
सब्बेव भूता सुमना भवन्तु,
अथोपि सक्कच्च सुणन्तु भासितं ॥१॥
[इस समय धरती या आकाश में रहने वाले जो भी प्राणी (भूतादि) उपस्थित हैं, वे सौमनस्य-पूर्ण हों (प्रसन्न-चित्त हों) और इस कथन (धम्म-वाणी) को आदर के साथ सुनें ॥१॥]
तस्मा हि भूता निसामेथ सब्बे,
मेत्तं करोथ मानुसिया पजाय।
दिवा च रत्तो च हरन्ति ये बलिं,
तस्मा हि ने रक्खथ अप्पमत्ता ॥२॥
[(हे उपस्थित प्राणी) इस प्रकार (आप) सब ध्यान से सुनें और मनुष्यों के प्रति मैत्री-भाव रखें। जिन मनुष्यों से (आप) दिन-रात बलि (भेट-पूजा-प्रसाद) ग्रहण करते हैं, प्रमाद रहित होकर उनकी रक्षा करें ॥२॥]
यं किञ्चि वित्तं इध वा हुरं वा,
सग्गेसु वा यं रतनं पणीतं ।
न नो समं अत्थि तथागतेन,
इदम्पि बुद्धे रतनं पणीतं।
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ॥३॥
[हर लोक मे जो भी धन-संपत्ति है और जो भी अमूल्य-रत्न हैं, उनमें से कोई भी तो तथागत (बुद्ध) के समान (श्रेष्ठ गुण रत्न) नहीं है। (सचमुच) यह भी बुद्ध में उत्तम गुण-रत्न है - इस सत्य कथन के प्रभाव से कल्याण हो ॥३॥]
खयं विरागं अमतं पणीतं,
यदज्झगा सक्यमुनी समाहितो।
न तेन धम्मेन समत्थि किञ्चि,
इदम्पि धम्मे रतनं पणीतं।
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ॥४॥
[समाहित-चित्त से शाक्य मुनि बुद्ध ने जिस राग-विमुक्त आश्रव-हीन श्रेष्ठ अमृत को प्राप्त किया था, उस लोकोत्तर निर्वाण-धम्म के समान अन्य कुछ भी नहीं है। (सचमुच) यह भी धम्म में उत्तम रत्न है - इस सत्य कथन के प्रभाव से कल्याण हो॥४॥]
यं बुद्धसेट्ठो परिवण्णयी सुचिं,
समाधिमानन्तरिकञ्ञमाहु।
समाधिना तेन समो न विज्जति,
इदम्पि धम्मे रतनं पणीतं ।
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ॥५॥
[जिस परम विशुद्ध आर्य-मार्गिक समाधि की प्रशंसा स्वयं बुद्ध ने की है और जिसे “आनन्तरिक" याने तत्काल फलदायी कहा है, उसके समान अन्य कोई भी तो समाधि नहीं है । (सचमुच) यह भी धम्म में उत्तम रत्न है - इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो॥५॥]
ये पुग्गला अट्ठ सतं पसत्था,
चत्तारि एतानि युगानि होन्ति।
ते दक्खिणेय्या सुगतस्स सावका,
एतेसु दिन्नानि महप्फलानि,
इदम्पि सङ्घे रतनं पणीतं,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ॥६॥
[जिन आठ प्रकार के आर्य (पुद्गल) व्यक्तियों की संतों ने प्रशंसा की है, (मार्ग और फल की गणना से) जिनके चार जोड़े होते हैं, वे ही बुद्ध के श्रावक-संघ (शिष्य) दक्षिणा के उपयुक्त पात्र हैं। उन्हें दिया गया दान महाफलदायी होता है।
(सचमुच) यह भी संघ में उत्तम रत्न है - इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो ॥६॥]
ये सुप्पयुत्ता मनसा दळ्हेन,
निक्कामिनो गोतमसासनम्हि ।
ते पत्तिपत्ता अमतं विगय्ह,
लद्धा मुधा निब्बुतिं भुञ्जमाना।
इदम्पि सङ्घे रतनं पणीतं,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ॥७॥
[जो (आर्य पुद्गल) बुद्ध के (साधना) शासन में दृढ़ता-पूर्वक एकाग्रचित्त और वितृष्ण हो कर संलग्न हैं, तथा जिन्होंने सहज ही अमृत में गोता लगा कर अमूल्य निर्वाण-रस का आस्वादन कर लिया है और प्राप्तव्य को प्राप्त कर
लिया है (उत्तम अरहंत फल को पा लिया है)। (सचमुच) यह भी संघ में उत्तम रल है- इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो ॥७॥]
यथिन्दखीलो पठविं सितो सिया,
चतुब्भि वातेहि असम्पकम्पियो।
तथूपमं सप्पुरिसं वदामि,
यो अरियसच्चानि अवेच्च पस्सति।
इदम्पि सङ्घे रतनं पणीतं,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ॥८॥
[जिस प्रकार पृथ्वी में (दृढ़ता से) गड़ा हुआ इंद्र-कील (नगर-द्वार-स्तंभ) चारों ओर के पवन-वेग से भी प्रकंपित नहीं होता, उस प्रकार के व्यक्ति को ही मैं सत्पुरुष कहता हूं, जिसने (बुद्ध के साधना-पथ पर चल कर) आर्यसत्यों का सम्यक दर्शन (साक्षात्कार) कर उन्हें स्पष्टरूप से जान लिया है; (वह आर्य-पुद्गल भी प्रत्येक अवस्था में अविचलित रहता है)। (सचमुच) यह भी (आय) संघ में उत्तम रत्न है- इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो ॥८॥]
ये अरियसच्चानि विभावयन्ति,
गम्भीरपञ्ञेन सुदेसितानि।
किञ्चापि ते होन्ति भुसप्पमत्ता,
न ते भवं अट्ठममादियन्ति।
इदम्पि सङ्घ रतनं पणीतं,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ॥९॥
[जिन्होंने गंभीर-प्रज्ञावान भगवान बुद्ध के द्वारा उपदिष्ट आर्यसत्यों का भली प्रकार साक्षात्कार कर लिया है, वे (स्रोतापन्न) यदि किसी कारण से बहुत प्रमादी भी हो जायं (और साधना के अभ्यास में सतत तत्पर न भी रहें) तो भी आठवां जन्म ग्रहण करणे से पहलेही मुक्ति निश्चित है।) (सचमुच) यह भी (आर्य) संघ में उत्तम रत्न है - इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो॥९॥]
सहावस्स दस्सन-सम्पदाय,
तयस्सु धम्मा जहिता भवन्ति।
सक्कायदिट्ठि विचिकिच्छितं च,
सीलब्बतं वा पि यदत्थि किञ्चि ॥१०॥
[दर्शन-प्राप्ति (स्रोतापन्न फल प्राप्ति) के साथ ही उसके (स्रोतापन्न व्यक्ति के) तीन बंधन छूट जाते हैं - सत्कायदृष्टि (आत्म सम्मोह), विचिकित्सा (संशय), शीलव्रत परामर्श (विभिन्न व्रतों आदि कर्मकांडों से चित्तशुद्धि होने का विश्वास)
अथवा अन्य जो कुछ भी ऐसे बंधन हों ... ॥१०॥]
चतूहपायेहि च विप्पमुत्तो,
छच्चाभिठानानि अभब्बो कातुं।
इदम्पि सङ्घे रतनं पणीतं,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ॥११॥
[वह चार अपाय गतियों (निरय लोकों) से पूरी तरह मुक्त हो जाता है। छह घोर पाप कर्मो (मातृ-हत्या, पितृ-हत्या, अर्हत-हत्या, बुद्ध का रक्तपात, संघ-भेद एवं मिथ्या आचार्यों के प्रति श्रद्धा) को कभी नहीं करता। (सचमुच) यह भी (आर्य)
संघ में उत्तम रत्न है - इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो ॥११॥]
किञ्चापि सो कम्मं करोति पापकं,
कायेन वाचा उद चेतसा वा।
अभब्बो सो तस्स पटिच्छादाय,
अभब्बता दिट्ठपदस्स वुत्ता।
इदम्पि सङ्घे रतनं पणीतं,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ॥१२॥
[भले ही वह (स्रोतापन्न व्यक्ति) काय, वचन अथवा मन से कोई पाप कर्म कर भी ले तो उसे छिपा नहीं सकता। (बुद्ध ने कहा है) निर्वाण का साक्षात्कार कर लेने वाला अपने दुष्कृत कर्म को छिपाने में असमर्थ है। (सचमुच) यह भी (आय) संघ में उत्तम रत्न है- इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो ॥१२॥]
वनप्पगुम्बे यथा फुस्सितग्गे,
गिम्हानमासे पठमस्मिं गिम्हे ।
तथूपमं धम्मवरं अदेसयि,
निब्बानगामिं परमं हिताय ।
इदम्पि बुद्धे रतनं पणीतं,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ॥१३॥
[ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभिक मास में जिस प्रकार सघन वन प्रफुल्लित वृक्षशिखरों से शोभायमान होता है, उसी प्रकार भगवान बुद्ध ने श्रेष्ठ धर्म का उपदेश दिया जो निर्वाण की ओर ले जाने वाला तथा परम हितकारी (यह लोकोत्तर धर्म शोभायमान) है। (सचमुच) यह भी बुद्ध में उत्तम रत्न है- इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो॥१३॥]
वरो वरञ्ञू वरदो वराहरो,
अनुत्तरो धम्मवरं अदेसयि।
इदम्पि बुद्धे रतनं पणीतं,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ॥१४॥
[श्रेष्ठ ने, श्रेष्ठ को जानने वाले, श्रेष्ठ को देने वाले तथा श्रेष्ठ को लाने वाले श्रेष्ठ (बुद्ध) ने अनुत्तर धर्म की देशना की। यह भी बुद्ध में उत्तम रल है। इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो ॥१४॥]
खीणं पुराणं नवं नत्थि सम्भवं,
विरत्तचित्तायतिके भवस्मिं।
ते खीणबीजा अविरूळ्हिछन्दा,
निब्बन्ति धीरा यथा'यं पदीपो।
इदम्पि सङ्घे रतनं पणीतं,
एतेन सच्चेन सुवत्थि होतु ॥१५॥
[जिनके सारे पुराने कर्म क्षीण हो गये हैं और नये कर्मों की उत्पत्ति नहीं होती; पुनर्जन्म में जिनकी आसक्ति समाप्त हो गयी है, वे क्षीण-बीज (अरहंत) तृष्णा-विमुक्त हो गये हैं। वे इसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त होते हैं जैसे (कि तेल समाप्त होने पर) यह प्रदीप। (सचमुच) यह भी (आर्य) संघ में श्रेष्ठ रत्न है - इस सत्य के प्रभाव से कल्याण हो ॥१५॥]
यानीध भूतानि समागतानि,
भुम्मानि वा यानिव अन्तलिक्खे।
तथागतं देवमनुस्सपूजितं,
बुद्धं नमस्साम सुवत्थि होतु ॥१६॥
[इस समय धरती या आकाश में रहने वाले जो भी प्राणी यहां उपस्थित हैं, हम सभी समस्त देवों और मनुष्यों द्वारा पूजित तथागत बुद्ध को नमस्कार करते हैं, कल्याण हो॥१६॥]
यानीध भूतानि समागतानि,
भुम्मानि वा यानिव अन्तलिक्खे।
तथागतं देवमनुस्सपूजितं,
धम्मं नमस्साम सुवत्थि होतु ॥१७॥
[इस समय धरती या आकाश में रहने वाले जो भी प्राणी यहां उपस्थित हैं, हम सभी समस्त देवों (कुशल कर्मी मनुष्य )और मनुष्यों द्वारा पूजित तथागत और धर्म को नमस्कार करते हैं, कल्याण हो ॥१७॥]
यानीध भूतानि समागतानि,
भुम्मानि वा यानिव अन्तलिक्खे।
तथागतं देवमनुस्सपूजितं,
सङ्घं नमस्साम सुवत्थि होतु ॥१८॥
[इस समय धरती या आकाश में रहने वाले जो भी प्राणी यहां उपस्थित हैं, हम सभी समस्त देवों और मनुष्यों द्वारा पूजित तथागत और संघ को नमस्कार करते हैं, कल्याण हो॥१८॥]
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Once the city of Vaishali was afflicted by terrible diseases, inhuman nuisances, and famine-stricken sufferings, Mahasthavira Ananda remembers the infinite qualities of Triratna to mitigate these three types of sorrows (firstly Buddha told to bhante ananda that how to do then After the complete ritual of Anand ji, all the Lichchhavi sit in front of the Buddha, then the Buddha explains the meaning to them, they give Dhammadesana)
Yānīdha bhūtāni samāgatāni
Bhummāni vā yāni va antalikkhe
Sabbeva bhūtā sumanā bhavantu
Atho pi sakkacca sunantu bhāsitam
Tasmā hi bhūtā nisāmetha sabbe
Mettam karotha mānusiyā pajāya
Divā ca ratto ca haranti ye balim
Tasmā hi ne rakkhatha appamattā
Yam kiñci vittam idha vā huram vā
Saggesu vā yam ratanam panītam
Na no samam atthi tathāgatena
Idam pi Buddhe ratanam panītam
Etena saccena suvatthi hotu
Khayam virāgam amatam panītam
Yadajjhagā sakyamuni samāhito
Na tena dhammena sam’atthi kiñci
Idam pi dhamme ratanam panītam
Etena saccena suvatthi hotu
Yam buddhasettho parivannayi sucim
Samādhi-mānantari-kañña-māhu
Samādhinā tena samo na vijjati
Idam pi dhamme ratanam panītam
Etena saccena suvatthi hotu
Ye puggalā attha satam pasatthā
Cattāri etāni yugāni honti
Te dakkhineyyā sugatassa sāvakā
Etesu dinnāni mahapphalāni
Idam pi sanghe ratanam panītam
Etena saccena suvatthi hotu
Ye suppayuttā manasā dalhena
Nikkāmino gotama sāsanamhi
Te pattipattā amatam vigayha
Laddhā mudhā nibbutim bhuñjamānā
Idam pi sanghe ratanam panītam
Etena saccena suvatthi hotu
Yathindakhīlo pathavim sito siyā
Catubbhi vātehi asampakampiyo
Tathūpamam sappurisam vadāmi
Yo ariyasaccāni avecca passati
Idam pi sanghe ratanam panītam
Etena saccena suvatthi hotu
Ye ariyasaccāni vibhāvayanti
Gambhīrapaññena sudesitāni
Kiñcāpi te honti bhusappamattā
Na te bhavam atthamam ādiyanti
Idam pi sanghe ratanam panītam
Etena saccena suvatthi hotu
Sahāvassa dassana sampadāya
Tayassu dhammā jahitā bhavanti
Sakkāyaditthi vicikicchitañ ca
Sīlabbatam vāpi yadatthi kiñci
Catūhapāyehi ca vippamuto
Cha cābhithānāni abhabbo kātum
Idam pi sanghe ratanam panītam
Etena saccena suvatti hotu
Kiñcāpi so kammam karoti pāpakam
Kāyena vācā uda cetasā vā
Abhabbo so tassa paticchādāya
Abhabbatā ditthapadassa vuttā
Idam pi sanghe ratanam panītam
Etena saccena suvatthi hotu
Vanappagumbe yathā phussitagge
Gimhānamāse pathamasmim gimhe
Tathūpamam dhammavaram adesayi
Nibbānagāmim paramam hitāya
Idam pi Buddhe ratanam panītam
Etena saccena suvatthi hotu
Varo varaññū varado varāharo
Anuttaro dhammavaram adesayi
Idam pi Buddhe ratanam panītam
Etena saccena suvatthi hotu
Khīnam purānam
navam natthi sambhavam
Viratta cittā āyatike bhavasmim
Te khīnabījā avirūlhicchandā
Nibbanti dhīrā yathā’yam padīpo
Idam pi sanghe ratanam panītam
Etena saccena suvatthi hotu
Yānīdha bhūtāni samāgatāni
Bhummāni vā yāni va antalikkhe
Tathāgatam devamanussa-pūjitam
Buddham namassāma suvatthi hotu
Yānīdha bhūtāni samāgatāni
Bhummāni vā yāni va antalikkhe
Tathāgatam devamanussa-pūjitam
Dhammam namassāma suvatthi hotu
Yānīdha bhūtāni samāgatāni
Bhummāni vā yāni va antalikkhe
Tathāgatam devamanussa-pūjitam
Sangham namassāma suvatthi hotu
Whatever beings that are here assembled,
whether terrestrial or celestial,
may every being be happy and joyful!
And also, listen attentively to my words.
Listen here, all beings!
Shower your loving-kindness to those humans who,
day and night, bring offerings to you.
Therefore, guard them diligently.
Whatever treasures there may be,
either here or in the world beyond,
or whatever precious jewels there are in the heavens;
yet none is comparable to the Enlightened One.
In the Buddha is this precious jewel found.
On account of this truth, may there be well-being!
The tranquil Sage of the Sakyas
realized cessation, freedom from passion,
deathlessness and excellence.
There is nothing comparable to this Dhamma.
In the Dhamma is this precious jewel found.
On account of this truth, may there be well-being!
That pure concentration the Supreme Buddha praised is described as
‘concentration without interruption’.
There is nothing like that concentration.
In the Dhamma is this precious jewel found.
On account of this truth, may there be well-being!
Those eight individuals constituting four pairs,
they are praised by those at peace.
They, worthy of offerings, are the disciples of the Enlightened One,
Gifts given to them yield abundant fruit.
In the Sangha is this precious jewel found.
On account of this truth, may there be well-being!
With steadfast mind, applying themselves
thoroughly in the Dispensation of Gotama,
free of passion, they have attained to that which should be attained.
And plunging into deathlessness,
they enjoyed the Peace (Nibbāna) in absolute freedom.
In the Sangha is this precious jewel found.
On account of this truth, may there be well-being!
Just as a firm post sunk in the earth
cannot be shaken by the four winds;
I say that a righteous person who
thoroughly perceives the Noble Truths is similar to that.
In the Sangha is this precious jewel found.
On account of this truth, may there be well-being!
Those who clearly understand the Noble Truths,
well taught by Him who has profound wisdom,
do not undergo an eighth birth,
no matter how exceedingly heedless they may be.
In the Sangha is this precious jewel found.
On account of this truth, may there be well-being!
Together with his attainment of insight,
three qualities have been abandoned (by him), namely:
wrong belief in selfhood, doubt and dependence
on rites and ceremonies.
He is absolutely freed from the four states of misery,
and is incapable of commiting the six major wrong doings.
In the Sangha is this precious jewel found.
On account of this truth, may there be well-being!
He is incapable of hiding whatever evil he does,
whether by deed, word or thought;
for it has been said that such an act is
impossible for one who has seen the Path.
In the Sangha is this precious jewel found.
On account of this truth, may there be well-being!
Just like a forest crown in full blossom,
in the first month of the summer season,
so has the sublime doctrine that leads to Nibbāna been taught
for the highest good (of beings).
In the Buddha is this precious jewel found.
On account of this truth, may there be well-being!
The peerless Excellent One, the Knower, the Giver,
the Bringer of the Excellent, has expounded the sublime doctrine.
In the Buddha is this precious jewel found.
On account of this truth, may there be well-being!
Their past is extinct, a new becoming there is not,
their minds are not attached to a future birth, their desires do not grow;
those wise ones with their seeds of becoming destroyed,
go out even as this lamp does.
In the Sangha is this precious jewel found.
On account of this truth, may there be well-being!
[ Sakka’s exultation: ]
We beings that are here assembled,
whether terrestrial or celestial,
salute the Accomplished Buddha,
who is honoured by gods and men.
May there be well-being!
We beings that are here assembled,
whether terrestrial or celestial,
salute the Enlightening Dhamma,
which is honoured by gods and men.
May there be well-being!
We beings that are here assembled,
whether terrestrial or celestial,
salute the Noble Sangha,
who are honoured by gods and men.
May there be well-being!
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